हे हंसवाहिनी! हे माँ सरस्वती!

हे हंसवाहिनी! हे माँ सरस्वती!
ज्ञान का वरदान प्रदान कर माँ
हम सब हैं बालक तेरी माँ
ममता की छांव में शरण दे माँ
अहंकार अंकुरित न हो मन में
सदा सद्बुद्धि प्रदान कर माँ।।

हे हंसवाहिनी! हे माँ सरस्वती!
अज्ञानता दूर कर दे माँ
ईर्ष्या न करुँ कभी किसी से भी
सुंदर विचार मन में भर दे माँ
राह भटक जाऊँ कभी तो
सही राह दिखाना माँ।।

हे हंसवाहिनी! हे माँ सरस्वती!
संपूर्ण जग का कल्याण करो माँ
हैं जो निर्धन और बेसहारे उनका
सहारा बन जाओ तुम माँ
उनकी पीड़ा दूर कर दो तुम माँ
हाँ माँ उन बेसहारों का सहारा बन माँ।।

हे हंसवाहिनी! हे माँ सरस्वती!
है बारम्बार प्रणाम तुम्हें माँ
हाँ आज हैं जो भी सफल
उनकी सफलता के पीछे है
तुम्हारा अतुलनीय योगदान माँ
हाँ माँ है बारम्बार नमस्कार तुम्हें।।

✍️कुमार संदीप

कविता-उड़ती पतंग

नव सृजन विहान मंच का हृदयतल से आभार।निर्णायक मंडल का कोटिशः आभार।गुरूजनों व माता-पिता के स्नेहाशीष व मित्रों के अपार स्नेह व प्रेम से पतंग विषय पर आयोजित काव्य प्रतियोगिता में मुझे तृतीय स्थान मिला।गुरुजनों व मित्रों का स्नेहाशीष सदैव बना रहे यही अभिलाषा है।सादर_प्रणाम

प्रतियोगिता में विजेता रही रचना===============

पतंग!हाँ उड़ती पतंग देती है संदेश सर्वदा
ऊंचाई पर पहुंच जाओ भले ही
ख़ुद की पहचान मत भूलना कभी।।

पतंग!हाँ उड़ती पतंग सिखलाती है सर्वदा
एक बार हौसले की उड़ान तो भर मनुज
तुझे सफलता निश्चित मिलेगी बस तू प्रयास कर निरंतर।।

पतंग!हाँ उड़ती पतंग देती है प्रेरणादायक संदेश कि
मनुज रिश्तों की डोर मजबूत रखो सदा
अपनों के सहयोग और साथ के बिना है आगे बढ़ना नामुमकिन।।

पतंग!हाँ उड़ती पतंग देती है संदेश हम इंसानों को
आत्मविश्वास और रग-रग में जुनून यदि हो सफलता पाने की
सफलता इक दिन मिल जाती है निश्चित ही।।

©कुमार संदीप
मौलिक,स्वरचित

ग्राम-सिमरा,जिला-मुजफ्फरपुर, अंचल-बंदरा,राज्य-बिहार

कल रात सपने में


कल रात सपने में
पापा को मैंने देखा
चुपचाप बिस्तर पर सोए
टकटकी निगाहों से मुझे
देख रहे थे,ऐसा लग रहा था
मुझसे बहुत कुछ कहना चाह रहे थे।

कल रात सपने में
पापा मेरी नजरों के सामने थे
अनायास मेरे चेहरे पर मुस्कान खिल गई
मुस्कान भी क्यूं न खिले?
आखिर कई वर्ष बाद सपने में ही सही
मेरी नजरों को पापा का दर्शन जो हुआ
पापा तो असमय ही काल के ग्रास बन गए
हाँ, हमसे बहुत दूर चले गए।

कल रात सपने में पापा आए थे
मृत्यु के पश्चात पापा न जाने कहाँ चले गए?
न कोई चिट्ठी न कोई संदेश न कोई टेलिफोन
न जाने पापा कहाँ चले गए?
जमाने वाले कहते हैं कि तेरे पापा मृत्युलोक गए हैं
क्या मृत्युलोक में जाने वाला लौटकर वापस नहीं आता?
शायद नहीं,हाँ नही।

कल रात सपने में
पापा को मैंने अपनी नजरों के सामने देखा
पापा को देखते ही मेरी आँखें नम हो गईं
इतने बरस बाद जो देखा मैंने पापा को
काश! ये सपना सपना न होता,
सच में पापा आप लौट आते हमेशा के लिए
फिर से हमारे पास,
पर ये नामुमकिन है,
क्योंकि मृत्युलोक में जाने के पश्चात
आत तक कोई वापस नहीं लौटा है
तो फिर आप कैसे वापस आयेंगे?

©कुमार संदीप
मौलिक, स्वरचित
ग्राम-सिमरा
जिला-मुजफ्फरपुर

#पापा

जिंदगी

जिंदगी

मत कर घमंड
इस मिट्टी के शरीर पर
ज़िंदगी भर जिस लाल पर
तू सबकुछ लुटाएगा
अंत समय में वह लाल
तुझे कफन भी नापकर
दिलाएगा
यही ज़िंदगी है

दुःख रहने के बहाने
छोडकर
खुश रहने का हुनर ढूंढ
कोई न साथ तेरा देगा
तू आया था अकेला
और अकेला ही
इस जग से जाएगा
यही ज़िंदगी है

भाई में भाईचारे का अभाव
देश से देश प्रेम का अभाव
बेटे का पिता से टकराव
ये सभी स्थितियां
देखने को मिलती हैं आज
यही ज़िंदगी है

©कुमार संदीप

#जिंदगी

कविता-धरती माँ की पुकार


तुम इंसान भी ना
कितने स्वार्थी हो
न तो तुम ईश्वर समान
माँ को समझ सके और
न ही धरती माँ को
केवल धरती माँ कहते हो
कभी पुत्र धर्म भी निभाया करो
मुझे इस तरह न सताया करो

धरती माँ क्या नहीं देती
सब कुछ तो कर देती हूँ
न्योछावर तुम पर
मेरे हृदय को लहूलुहान कर
अन्न उगाते हो
तभी तो जीते हो तुम
सोचा है कभी कि….
मुझे कितना दर्द होता है
केवल धरती माँ कहते हो
कभी पुत्र धर्म भी निभाया करो
मुझे इस तरह न सताया करो

मैं तो माँ हूँ
आखिर कर लेती हूँ सहन
असहनीय दर्द भी
पर …तुम्हें क्या महसूस होगा
माँ के दर्द का
तुम सभी तो निर्दयी हो
क्या अपनी धरती माँ के लिए
तुमने कुछ सोचा है
कुछ किया है
केवल धरती माँ कहते हो
कभी पुत्र धर्म भी निभाया करो
मुझे इस तरह न सताया करो

अरे ! स्वार्थी मानव
मैं तुमसे माँगती ही क्या हूँ
बस जरा-सा चैनों सुकून
समुचित देखभाल
तुम इस तरह न माँ
से खिलवाड़ करो
धरती माँ कहते तो
माँ से सही बर्ताव करो

©कुमार संदीप

#धरती_माँ

कविता-निर्धन हूँ साहब!

निर्धन हूँ साहब!

निर्धन हूँ साहब !
बारिश की बूँदों को भी
खुशी का पैगाम समझता हूँ।

निर्धन हूँ साहब !
जब उड़ाता हूँ कागज की पतंगे
उस वक्त
अपने आप को खुश कर लेता हूँ कि
उड़ रहा हूँ मैं भी आसमां में

निर्धन हूँ साहब !
फटे कपड़े पहनकर भी
खुश रह लेता हूँ
है ख्वाहिश कि …
नयी पोशाक मैं भी पहनू पर …
ये मुमकिन हो कैसे?

निर्धन हूँ साहब !
जब भूख होती है तो …
पी लेता हूँ दो घूँट नीर की
ताकि ….
कुछ समय तक भूख मिट सके

निर्धन हूँ साहब !
रहता हूँ खुले आसमां में
महफूज हमें भी ख्वाहिश है की…
रहूं आलिशान बंगलों में

निर्धन हूँ साहब !
करवटें बदल-बदलकर
काटता हूँ रात …
असहनीय दुख सहन करता हूँ
काश! हो ऐसी सुबह जो …
जब बदल जाए जीवन

निर्धन हूँ साहब !
दुखों का अंबार लिए चलता हूँ
फिर भी …
झूठी खुशी से
चेहरे पर मुस्कान लाता हूँ कि …
कोई भूखा न कहे
पागल न कहे
असोभनीय नामों से न पुकारे

✍️कुमार संदीप

#गरीबी

छठ

“छठ का पर्व हो और बच्चों के लिए नए कपड़े नहीं खरीदूँ…ऐसा भी भला हो सकता है” गोविंद मन ही मन ख़ुद से संवाद कर रहा था! ऐसा कोई भी पर्व नही गुज़रता था, जिस पर्व में गोविंद अपने बच्चों के लिए कपड़े न खरीदता हो! छठ पर्व में ख़ुद के लिए आज तक उसने नए कपड़े नहीं खरीदे कभी! उसका सारा दिन खेत में गुज़रता और बच्चों के भविष्य की चिंता में रात करवटें बदल-बदलकर बीतती थी।गोविंद अपने दोनों बेटे और पत्नी के लिए नये कपड़े खरीद कर लाया। उसका छोटा बेटा विश्वास उम्र में छोटा तो ज़रूर था पर उसके विचार उच्च थे…उसने कहा “पापा क्या आप इस बार फिर से ख़ुद के लिए नए कपड़े नहीं लाए?” गोंविद ने कहा “बेटे तू चिंता मत कर! मेरे पास पहले से ही एक कुर्ता और धोती है,मैं वही पहन लूंगा!”
“पर पापा आपका कुर्ता तो बहुत पुराना है?और उसका रंग भी बेरंग हो चुका है?” विश्वास ने तर्क दिया!
पर गोविंद बेटे की बातों को अनसुना करते हुए काम पर चला गया। विश्वास अगले ही दिन अपने नए कपड़े लेकर बाजार पहुंच गया और वो सभी कपड़े के दुकानदार से मिन्नतें करने लगा कि “साहब आप मेरी नई शर्ट और पैंट ले लो और बदले में मुझे मेरे पापा की नाप का एक नया कुर्ता दे दो।” सभी दुकानदारों ने कपड़े लेने से मना कर दिया ..इससे विश्वास निराश होकर रोते हुए वापस घर की ओर चल पड़ा ।रास्ते में एक सज्जन दुकानदार ने रोते देखकर उसे अपने पास बुलाया और कहा कि “बेटे क्या हुआ,क्यों रो रहे हो?” विश्वास ने कहा “काका जी क्या आप मेरे ये नये कपड़े लेकर उसके बदले में एक कुर्ता देंगे?”
दुकानदार मान गया,और उसने विश्वास को उस कपड़े के बदले में नया कुर्ता दे दिया। ! अपने हाथों में कुर्ते को देखकर वह बहुत खुश हुआ और उसकी आँखों से खुशी के आँसू बह निकले ।उसने दुकानदार के चरणस्पर्श कर कहा ” काका आपने आज मुझे बहुत बड़ा तोहफा दिया है, मैं आजीवन आपका आभारी रहूंगा” और वह घर वापस आ गया।
छठ घाट पर जाने का समय हो चुका था,सभी तैयार हो गए थे और परेशान थे क्योंकि विश्वास पूरे दिन घर पर जो नहीं था। तभी वह आता दिखाई दिया! गोंविद ने हुलसते हुए कहा “बेटे कहाँ था तू इतनी देर से?पता है हम सब कितना परेशान हो रहे थे? चल अब जल्दी से नए कपड़े पहनकर आ जा। विश्वास अपने पापा की उंगली पकड़ कमरे की ओर चल दिया और पापा के हाथों में कुर्ता रखकर कहा “पापा आप पुराना वाला कुर्ता पहनकर मत जाइए! इस नए कुर्ते को पहन लीजिए।”
“बेटे, कहाँ से लाया ये नया कुर्ता?किसने दिया तुझे?”गोविंद ने आश्चर्य से पूछा!
“पापा किसी ने नहीं दिया,मैं अपने नये कपड़े दुकानदार को देकर आपके लिए ये कुर्ता ले आया।” बेटे की बात सुनकर गोविंद के नयन सजल हो गये, वह उसको सीने से लगाकर रोने लगा।

” पापा क्यूँ रो रहे हैं आप?” विश्वास ने उनके आँसू पोछे “इतने दिनों से आप मेरे ,भइया और माँ के लिए हर साल नये कपड़े लाते थे,पर ख़ुद के लिए कभी कुछ नही लायेे.. मेरी भी इच्छा है कि मेरे पापा नये कपड़े पहनकर छठ घाट पर जायेंं! वैसे भी पापा मेरे पास कपड़ों की कोई कमी नहीं है!पिछले साल वाले कपड़ों को मैंने अब तक सहेज कर रखा है,मैं वही पहन लूंगा।अब जल्दी से तैयार हो जाइये और आप ही तो कहते हैं पापा कि आँखों में आँसू अच्छे नहीं लगते। फिर आज तो खुशियों का महान पर्व छठ है,चलिए मैं भी जाता हूँ तैयार होने।”

✍️कुमार संदीप
स्वरचित,ग्राम-सिमरा, पोस्ट-श्री कान्त,अंचल-बंदरा, जिला-मुजफ्फरपुर

सीमित संसाधनों के बीच बसों में रेलगाड़ियों में धक्के खा कर भी शहर से आकर अपने गाँव में छठ घाट पर छठ पर्व मनाने में आनंद की जो अनुभूति  होती है,उसकी तुलना नही की जा सकती।आर्थिक रुप से कमजोर और दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए दिन भर परेशान रहने वाले दीन दुखियों के चेहरे पर भी इन दिनों जो खुशी होती है,उस खुशी के विषय में कुछ लिख पाना नामुमकिन है।ईश्वर सभी का मंगल करे।कोई भी दो वक्त की रोटी और सामान्य जरुरतों के लिए न तरसे।अपनों से असमय किसी का साथ न छूटे।हर परिवार में हर आँगन में खुशियाँ ही खुशियाँ हो।

मंजिल का राही

मंजिल का राही तू निरंतर प्रयास कर

मंजिल की राह पर चल राही
न परवाह कर कष्ट की
मिलेगी सफलता निश्चित ही
बस मंजिल का राही तू निरंतर प्रयास कर

मुश्किलों में राही तू मुस्कुरा
तकलीफों को मात देकर तू
नव इतिहास रच राही तू मत घबरा
बस मंजिल का राही तू निरंतर प्रयास कर

राह में मिले कांटों से मत घबरा
मुश्किलों में मत घबरा राही
सफलता पाना बिल्कुल आसान है
बस मंजिल का राही तू निरंतर प्रयास कर

हालातों से हार मान यदि थक जाओगे
याद रखना हार मान तुम मंजिल नहीं पाओगे
बुरे समय को मात देकर तू नव इतिहास रच
बस मंजिल का राही तू निरंतर प्रयास कर

पढ़कर देख इतिहास तू बिन मेहनत
मंजिल मिलती नहीं है चाहता है कुछ
अलग करना आत्मविश्वास तू बढ़ा
बस मंजिल का राही तू निरंतर प्रयास कर

मधुर स्वर में बोलना सीख राही कटु वचन
न कभी बोलना व्यवहार तेरा प्रथम परिचय
है तू व्यवहार कुशल,उत्तम व आदर्श बना
बस मंजिल का राही तू निरंतर प्रयास कर

जिंदगी एक अनमोल उपहार मिली है
रब से तू जिंदगी को सार्थक बना
इतिहास रट मत तू नव इतिहास रच
बस मंजिल का राही तू निरंतर प्रयास कर

हौसलों को रख बुलंद एक दिन होगा चर्चा
तेरे हुनर का जग में बस तू नेक काम कर
मुश्किलों का कर सामना हार मत मानना
बस मंजिल का राही तू निरंतर प्रयास कर

राही भाग्य को दोष देकर तू न पीछा छुड़ाना
हौसलों से अपना भाग्य तू खुद सृजित कर
हालतों से लड़ना सीख भाग्य खुद गढ़ना सीख
बस मंजिल का राही तू निरंतर प्रयास कर

©कुमार संदीप
स्वरच
ग्राम-सिमरा
पोस्ट-श्री कान्त
पिनकोड-843115
जिला-मुजफ्फरपुर
राज्य-बिहार

#Motivational_Poem

किसान

किसान

किसान का जीवन जीना
नहीं आसान होता है
रोते हैं
बिलखते हैं
इनके दर्द
फिर भी
न निकलती हैं
इनके मुख से आह !

किसान का जीवन जीना
नहीं आसान होता हैं
जब आती हैं आँधी
घर का तिनका-तिनका
बिखर जाता
फिर बुनते हैं झोपड़ी
गुजारने को दिन चार।

किसान का जीवन जीना
नहीं आसान होता है
बिटिया की शादी में
बिक जाती हैं
झोपड़ी भी
दब जाते हैं
कर्ज के बोझ तले।

किसान का जीवन जीना
नहीं आसान होता है
कभी भूखे पेट भी
पूरे दिन है कटते
होती नहीं अन्नदाता को
अन्न का एक दाना ग्रहण।

किसान का जीवन जीना
नहीं आसान होता है
कड़कती धूप हो
या हो कंपकपाती ठंड
नहीं हारते हिम्मत
रहते अटल खेतों में
उम्मीदों के अभिलाषा लिए।

किसान का जीवन जीना
नहीं आसान होता है
नम आँखें
ये चेहरे की झुर्रियाँ
फटे पाँव
फटे कपड़ें
करते हैं बयां इनके दर्द को।

किसान का जीवन जीना
नहीं आसान होता है
अमुआ की डाली पर
यूँ हीं नहीं देते बलिदान
ये बलिदान करता है बयां
इनकी असहनीय पीड़ा को।

किसान का जीवन जीना
नहीं आसान होता है
हे ईश्वर दें आशीष
दूर करें इनकी पीड़ा
न हो इनके जीवन में
दुख की रातें
न हो इनकी नम आँखें।

©कुमार संदीप
ग्राम-सिमरा, पोस्ट-श्री कान्त,जिला-मुजफ्फरपुर, अंचल-बंदरा

रिश्ते

रिश्ते

बदलते परिवेश में बदल रहे लोग,

हुआ क्या मनुज को न जाने क्या ?

बनने से ज्यादा बिगड़ते रिश्ते।

कुछ रिश्ते टूट रहें,

अहम से कुछ रिश्ते टूट रहे वहम से,

कब होंगे सजग सभी,

बनने से ज्यादा बिगड़ते रिश्ते।

मैं हूँ सही,

मैं नहीं गलत का है उलझन न जाने है कौन सही

और कौन गलत इसी कश्मकश में

बनने से ज्यादा बिगड़ते रिश्ते।

पैसे की लोभ हैं ऐसी मन में

जिनके सामने अपनापन बस एक शब्द है,

इसी अहम में बनने से ज्यादा बिगड़ते रिश्ते।

रिश्ते की डोर तो अब है,

कमजोर हर कोई है खुद में मस्त और व्यस्त,

इसी कश्मकश में बनने से ज्यादा बिगड़ते रिश्ते।

फेसबुकिया मित्र है,

अब परिवार खुद के परिवार अब महज एक शब्द है,

इसी अदृश्य वास्तविक परिवार के कारण

बनने से ज्यादा बिगड़ते रिश्ते।

भूल गए हम सभी संस्कार

और भूल गए पिता के आदर्शों को

इसी कारण बनने से ज्यादा बिगड़ते रिश्ते।

स्मार्टफोन में मदमस्त हैं सभी

इसी में सब कुछ इसी में जीवन इसी स्मार्टफोन के कारण

बनने से ज्यादा बिगड़ते रिश्ते।

प्रतिकूल परिस्थितियों में रिश्तें ही आते हैं काम

इन बातों से हैं, नवयुवक अनजान,

इसी अज्ञानता के कारण बनने ज्यादा बिगड़ते रिश्ते।

अपनों में नहीं है, अपनापन अब हैं अर्थयुग,

कलयुग का दौर, इसी कारण बनने से ज्यादा बिगड़ते रिश्ते।

मुश्किल समय में अब रिश्तेदार नमस्ते कहते,

इसी नमस्कार से बनने से ज्यादा बिगड़ते रिश्ते।

अपना दुःख करोगे व्यक्त दुःख न होगा हल मिलेंगे

बदले में ताने और उपहास के दो शब्द

इसी कारण बनने से ज्यादा बिगड़ते रिश्ते।

माँ कहती लाल रिश्ते बचाओं और अपनापन लाओ,

लाल खुद में मस्त और व्यस्त

इन्हीं कारणों से बनने से ज्यादा बिगड़ते रिश्ते।

कोई न समझता किसी के दर्द को

सब खुद की उपलब्धि और तरक्की में हैं व्यस्त

इसी व्यस्तता के कारण बनने से ज्यादा बिगड़ते रिश्ते।

©कुमार संदीप
ग्राम-सिमरा, जिला-मुजफ्फरपुर, राज्य-बिहार, अंचल-बंदरा, पोस्ट-श्री कान्त

#रिश्ते
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